डूबता बचपन
अभी बच्चा पैदा भी नहीं हुआ - उसे नाम दे दिया ,
उसे क्या करना है वह काम दे दिया।
उसे जिसे मानना है वह भगवान दे दिया ,
उसे नकली धर्म और झूठा मर्म दे दिया।
न जाने किस बात की जल्दी हैं ,
न जाने किस बात का डर
इसके पहले की बच्चा यह सुन्दर संसार अपनी कोरी आँखों से देख पाएं ,
उसे मान्यताओं का , विचारों का - एक रंगीन चस्मा दे दिया।
घर पर मारा जितना मार सके उसके भीतर की उड़ान को,
बचा खुचा जो हैं जूनून उसे मारने के लिए स्कूल का सामान दे दिया।
तितलियों को छोड़ो किताबें पकड़ों
गलियों को छोड़ो कलमें पकड़ों,
बूढें मदारी तो आते ही रहेंगे गांव में ,
तुम खेल छोड़ों - पढ़ाई पकड़ो।
न जाने किस बात की जल्दी हैं
किस बात का डर।
पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब , खेलोगे कूदोगे रहोगे गवार।
मैंने नवाबों को देखा है - उनकी उथली ज़िन्दगी , नकली सख्शियत को देखा है
मैंने गवारों को भी देखा है - उनकी मस्ती , उनकी फकीरी में इंसानियत को देखा हैं।
नवाबों के जंग की - गवारों ने खेती
नवाबो ने जुल्म किये - गवारों ने क्रांति
फिर भी हर बच्चें का बचपन छीन उसे जल्द से जल्द नवाब बनने के दौड़ में लगा देना हर
माँ बाप अपना कर्त्तव्य और समाज अपना उत्तरदायित्व समझता हैं।
न जाने क्यों - न जाने किस बात की जल्दी हैं
न जाने किस बात का डर।
दुनिया भर चुकी , थक चुकी हैं पढ़े लिखे अनपढ़ों से
धरती घायल हो चुकी हैं इनके सपने पूरे करते करते
जिस सुन्दर समाज के सपने संजोए थे - वह तो सपनो से भी विलुप्त होने लगा हैं ,
जीवन को हमने सफलतापूर्वक बना ही दिया एक बोझ , एक सजा , एक समस्या
कम से कम कुछ यादें तो बना लेने दो बच्चों को जिसके सहारे बाकी जीवन निकल जाएँ ।
वह नीले खुले आसमान में उड़ने के ख्वाब ,
वह तारों को गिनते हुए उन पर जाकर घर बनाने के ख्वाब ,
वह आम के पेड़ पर पड़ें सावन के झूलें झूलते हुए इस दुनिया को भूल ही जाना ,
नंगे पाँव दौड़ते दौड़ते गिरना , उठना और फिर गिर जाना ,
वो जुगनू को परियों की कहानी से आया हुआ मानना
वह घंटों पत्थरों , कंकरों, डंडियों में अपना संसार सजाना
क्यों इन पलों को भी हम बच्चों से जल्द से जल्द छीनना चाहते हैं ?
खुद तो मरे हुए जीते हैं , इनको भी मारना चाहते हैं।
न जाने किस बात की जल्दी हैं ,
किस बात का डर ?